Sunday, June 23, 2013

क्यों काजल हैं बिखरे तेरे



क्यों काजल हैं बिखरे तेरे....
  क्यों शहर है सिमटा

हर कोने बिखरी ढ़ेरों गुड़िया 
रिसती है काले आंसू 
रिसते है तेरे सपने 

क्यों काजल हैं बिखरे तेरे....
  क्यों शहर है सिमटा

खोल ले आंखें अपनी 
देख ले बिखरे बिखरे बादल को 
धुंध छटेगी, प्यास मिटेगी 
फिर भी ना होगा सवेरा 
क्योंकि ये अंधेरों की है दुनिया 

क्यों काजल हैं बिखरे तेरे....
  क्यों शहर है सिमटा


कातिब(लेखक) 
रजनीश बाबा मेहता 

Saturday, June 15, 2013

ख्वाबों के खत





दर्द की स्याही से ख्वाबों के खत में
ख्यालों को क्या खूब लिखा था ।।

सोच को सपनों की तरह सहेज कर रखा
लेकिन साज़िश के साथ किसी ने सुना ही नहीं।।

बदलते वक्त की बयार ने मौका ही नहीं दिया
वरना वो भी बेरहम, बेअसर ही साबित होता ।।

लफ्जों में बदलते आंसू , आंसूओँ में थोड़ा सा काजल
मानों रातों ने भी रो रोकर, खुद को गीला कर लिया ।।

अब तो आक़िल भी अपने अक्ल पर रो रहा है
क्या करें अब तो कातिब(लेखक) भी अपने कलम पर रो रहा है।।

     कातिब(लेखक)
रजनीश 'बाबा' मेहता 
15 जून 2013



Monday, May 13, 2013

लो......आ गई मेरी फ़िदाई

Rajnish baba mehta

मेरी फ़िदाई कल मेरे पास थी
ख्वाबों से दूर कहानियों के करीब
कैसे आई मेरे पास पता नहीं
लेकिन बे अन्दाज़ा खुशी फ़सानों सा दिखने लगा
एकाएक मेरी ज़हीर मेरे ज़ार के मर्म को कैसे समझ पाई
सवालों की उलझन में रकीबों का भी खयाल आया
लेकिन वो वक्त मेरा था
क्योंकि मैं महान जो हो चला था।
ठहरो....कहीं ये मेरी इश्तियाक-ए-इश्क का पयाम तो नहीं
कोई परखने की कोशिश तो नहीं
फिर ख्याल आया क्यों डरता हूं मैं
मेरी फ़िदाई मेरे पास आ तो गई।
अब ज़िदगी का क्या आसरा होगा पता नहीं
लेकिन मेरी फ़िदाई अब भी मेरे पास है।।

क़ातिब
रजनीश बाबा मेहता

Rajnish BaBa Mehta
                                                      रजनीश बाबा मेहता 

1.-फ़िदाई= प्रेमी,
2.-बे अन्दाज़ा= अन्तहीन, अपार,
3.-फ़साना= प्रेमकथा, कहानी, किस्सा,
4.- ज़हीर- दोस्त
5.-ज़ार= लालसा, इच्छा
6.इश्तियाक-ए-इश्क - प्रेम की लालसा
7.- पयाम= संदेश

Sunday, April 7, 2013

अश्फ़ाक की तलाश में ...तू... या मैं ?

तू या मैं ?



मेरी पामाल ज़िंदगी का सहारा हो तुम
कैसे कहूं तुम्हें, कि मौज़ूं सहारा हो तुम
रात की तन्हाई टहनियों तले बीतती है
फिर भी मेरे लबों की अख़्ज हो तुम
अग़लात लिए आक़िल सा
तेरे रूहों की रवानियत सा
छोटे छोटे अश्कों की बूदों सा
अपने अऱज पर अपनी आंचल को समेटे हुए
मुझे अर्जमन्द ना जाने क्यों समझती जा रही हो तुम
अज़नबी रहने की आदत है मेरी
संभलना है तो संभलो अभी
वरना आब-ए-तल्ख़ में खो जाओगी तुम
सोच मेरी,  समंदर है,  या है दायरा
ना जाने ज़िदगी क्यों बन गई मुशायरा
अब एहतियाज-ए-इख्लास की ख्वाहिश ना है मेरी
क्योंकि अब ना तो तू है.. ना ही सौगंध तेरी।

रजनीश बाबा मेहता 


अगल़ात= अशुद्धियां, अख्ज़= पकड़नेवाला, लेनेवाला, छीनने वाला, लोभी, आक़िल= बुद्धिमान, अऱ्ज= धरती, क्षेत्र, पृथ्वी, अर्जमन्द= महान, आफ़ताब= सूर्य,
आब-ए-तल्ख़= कड़वा पानी, शराब, आंसू, एहतियाज= आवश्यकता, इख्लास= प्रेम, सच्चाई, शुद्धता, निष्ठ
अश्फ़ाक= सहारा,