Friday, April 21, 2017

वक्त के कदम

Poet Rajnish BaBa Mehta


 वक्त यूं ही बेवक्त पर सवार बिना लगाम दौड़ा है 

जो खींचा उम्र का तागा उसे सब्र पर यूं ही छोड़ा है 
रहगुजर बन मंजिल पर जाने का जूनून जो अंध सा था 
वो अब करीब सी रोशनी में आकर फिर सरपट दौड़ा है।।

आहिस्ता-आहिस्ता अक्ल की बातें अखबारों की दरारों में नजर आने लगी 
बूढ़ी आंखों में नहीं दरवाजों पर यूं दस्तक भी सांकल सी नजर आने लगी 
कांपते कदमों और होठों पर नाचते शब्द अब संकोच के भंवर में डूबने लगी 
आवाज आई ख्वाबों के दरवाजों से, मानो अब जिस्म भी बूढ़ी होने लगी ।।

गज़ल की शक्ल में कब्र के कोनों से कुछ किस्से लहू के सुनाता हूं 
छोड़कर बंसी बीन की तलाश में सपेरों सा कुछ धुन गुनगुनाता हूं 
कुछ बातें घर कर जाए सच्ची साज की तरह तो आवाज देकर बताना 
जब वो दरिया छोड़, मेरे समंदर में समा जाए तो एक बारगी फिर बताना ।।

पूरी लफ्ज तेरे लफ्जों में समा जाए तो परदे के पीछे छिप ना जाना
जो जोग बनकर खड़ा है, जिस्म की आह में उसके जिस्मों में समा ना जाना 
उलझे वक्त में कोई ज़हीर, तेरे जज़्बात के करीब हो तो ईशारों से खबर करना 
क्योंकि भीड़ के कोनों में खड़ा होकर,आदतन या इबातन बेवजह शोर मत करना।। 

कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 

Monday, April 17, 2017

।।ख़्वाब ऱख आया।।

Poet Rajnish baba mehta 



तेरे गुलिस्तें में, मैं अपना ख़्वाब रख आया 
वो तकिये के नीचे तेरा पुराना खत रख आया 
खोलकर पाजे़ब कभी दीवारों की दरारों में मत रखना 
कारे कारे कजरारे नैनों में, काजलों का घर मत रखना 
छोड़कर गुनाहों को तू, मुझ फकीर का ख्याल मत रखना 
अपनी जमाल की हरारतों के तले, चांद का भी फिक्र मत करना ।।


सुना है तुझे अश्कों से पीकर, ख्वाबों-खयाल भी खूब टूटते हैं 
सुना है तेरी आहटों की दीवार पर चढ़कर, बर्बादी भी खूब लुटते हैं
खबर थी खतों में, चिपके दीवारों पर, तेरे बदन की गोदनाई तराशों पर 
तेरी घूंघट की दीदार को, मेले में खलिश लिए ख्वाहिश भी खूब जुटते हैं।।


खुर्शीद की रोशनी में, ख़ुर्रम आदत थी या ख़ुर्रम फितरत थी, सोचा नहीं कभी 
खुद की जिस्म को भूलकर, अश्कों से खूब टकराया,लेकिन तूझे पाया नहीं कभी  
ख़ाक बनकर ख़त्म की कगार पर खड़ा था, फिर भी विरह की गीत सुनाया नहीं कभी 
खुश्क चेहरे की आखिरी धड़कन को सुना खूब तुमने, फिर पनाह मिली नहीं कभी ।।

मिलूंगा आखिरी पन्नें की आखिरी लाईन पर, धुंधली स्याही के साथ 
बदलकर भेष ,बनकर जोगी ,मिलाएगी सांसों से सांसें, तू ज़हीर के साथ।। 

कातिब 
रजनीश बाबा मेहता  


।।जमाल= सुन्दरता ।।हरारत -गरमी।।ख़लिश= पीड़ा,शंका।।ख़ुर्रम= प्रसन्न,खुश।।ख़ूर्शीद (ख़ुर्शीद)=सूर्य।।ख़ला- खाली, जगह।।ज़हीर= साथी।।

Sunday, April 16, 2017

।।मेरा जिस्म साधू ना होगा।।


इश्क भी एक रोग है, जिस्म का नहीं, जे़हन में बैठा
तेरा मेरा एक जोग है, तुझसा ही सही मुझमें सिमटा
गलियों के किस्से बन गए, मेरी कहानी तुझमें लिपटा 
भला हम मानते कब थे, जो तुम सब कुछ जानते थे
तुम छोटी सी गजल में, लेकिन वो सितारों की पनघट पर थे
तुम धीमी आहटों में , लेकिन वो चाहतों की सन्नाटों में थे।।


उसे मालूम ही कहां था, तेरी सांसों की सिवलट पर हमआयल की
मैंने ज़िक्र ही कहां किया ,तेरे होठों की गुलाबी मुस्कुराहट की
तेरे आंखों की इशारों से जो हुआ जिस्म बेपर्दा घायल की
वो सफ्फाक सा संगमरमरी बदन लिए, तू मुझमें कैसे पेवस्त की ।।


तेरी जुल्फों की अंगड़ाई, तेरी पाजेब की रंग मेरे माथों पर घर कर गई
फिर भी ना मेरा दिल बेकाबू होगा, ना ही मेरा जिस्म साधू होगा
तेरी-मेरी गलियों की आखिरी छोड़ पर, ना तेरा निशां होगा ना मेरा शमां होगा
बस यादों के पन्नों पर, बिखरे लफ्जों की तरह, दो शब्द तेरा होगा, दो शब्द मेरा होगा।।
कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 

Monday, April 3, 2017

।।जोगी बन रूह बना।।

Rajnish BaBa Mehta Writer

थिरकते होठों और कांपते शब्दों की जुंबिश में, जान होगा किसी का
रेतीली गरम हवाओं और तपते तलवों के बीच, पहचान होगा किसी का !
रात ऐसी रोती होगी, खुली खिड़कियों के बाहर, बेज़ुबान होगा किसी का
दस्तक दी थी बार बार, यही सोच दरवाजा ना खोला, मेहमान होगा किसी का !

जोगी बन लूटने चला था भरी दोपहरी में, खुली आंखें शाम होने को आया
संगमरमरी जिस्म ओढ़े लेटी रही चारपाई पर, बिना खोले पूरी ख़त पढ़ आया !
दस्तक की आहट से चौंक उठे दरवाजे, कहने लगी, आधी नींद में था शरमाया
छोड़ा आधी बातों को बीच रातों में, अफसोस तेरा भ्रम हकीकत में पूरा ना कर पाया !
मेरी तिश्नगी तसव्वुर से निकलकर तेरी तस्वीर की दास्तां बन गई
नातर्स थी तू खिड़कियों पर खड़ी, सामने वो नादीदा निहारती रोती चली गई
नब़्ज नाबूद हो गया , फिर भी सिराहने तले से वो ताकती चली गई
हर सोच को जो सहेज कर रखा, आखिरी लम्हों में वो पेवस्त होती चली गई।।
अब राख सा ज़िस्म रूह बनकर ,चांद तले रात-रात रोया जो करेगा
सामने हकीकत देख, बस अब फ़सानों की बात कर वो अफसोस जताया करेगा।।
ढ़ूढना कभी जो चांदनी रात आएगी, मिलूंगा सामने ,फिर भी तू जी भरकर रोया करेगी
मिलके भी ना मिल पाएंगे, सामने अक्श तो होगा, लेकिन अफ़सोस भी तू खूब जताया करेगी।।
कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 
।।तिश्नगी - प्यास ।।तसव्वुर-कल्पना।।नातर्स-कठोर हृदय ।।नादीदा -लालची ।।नाब़ूद -लुप्त ।।

।।प्रेम या पहेली।।

Rajnish Baba Mehta Director

ज़िंदगी की हकीकत को आज पहेली बनते देखा
हंसते आंखों के कोनों में काजलों के साथ आंसूंओं को देखा
कठोर सी लगने वाली सांसों को मोम सा पिघलते देखा 
लाजवंती सी लाल उसको, कृष्ण की राधा बनते देखा ।।
परदों में आई पहली बार, बोला साज को साज ही रहने दो
सिलते लफ्ज होते तो कहता राज को राज ही रहने दो
आंसूओं में आए अल्फ़ाज, चीख चीख कहते रहे, मेरा दर्द तो मुझे कहने दो
गमनीयत के माहौल में ,मेरे कान भी बोल पड़े, कुछ अल्फाज मुझे भी तो कहने दो।।
हुई बेपर्दा वो आईने की तक्सीद में नहीं ,मेरे पहलूओं में बार बार
लकी थी वो, जो चांद के सामने, दर्द को लेकर रोई हर-बार
जिस्म था पराया, डर का था साया , फिर भी अत्फ़ पहुंचाया कई-बार
लगी अदालत सोच की सड़क पर, टूट कर बिखर जाती सरेआम वो हर-बार।।
झूठ का पूलिंदा लिए जो चली थी, सच के चौराहे पर वो पहली बार
आंसूओं में बह गया वो रकीब, जो दर्द दिया था उसे आखिरी बार
प्रेम बनकर जो आई ,थी वो ज़हीर किसी की, पहेली बनकर चली गई ,
कुछ अल्फाज मेरी झोली में छोड़, इस क़ातिब के किस्सों में समा गई।।
शब्दों की लकीरों से तूझे तराश लूंगा पीले पन्नों पर एक रोज़
बस एक बार और मिलना काजलों में सने आंसूंओं के साथ किसी रोज
ख़जालत छोड़ ख़त लिखना तूम ,आउंगा उसी चौराहे पर जहां मिली थी हर रोज
तेरी-मेरी कहानी की आखिरी पन्ने को पढ़, स्याही सी अश्क से लिखूंगा एक रोज।।
पता है कभी ढूंढ ना पाउंगा तेरी छुअन, प्रेम थी या पहेली उस रोज।।
कातिब & कहानीबाज
रजनीश बाबा मेहता 
।।तक्सीद -खोज।।अत्फ़ -प्रेम।।ज़हीर -मित्र,साथी।।क़ातिब -लेखक।।ख़जालत- लज्जा।।

।। मैं कृष्ण रण में खड़ा ।।

Rajnish BaBa Mehta 

लफ़्ज लाल कर दे तू
मैं जिस्म लाल कर दूंगा।।
एक पल में सोच समेट ले तू 
मैं समंदर खाक कर दूंगा।।
रूह बनकर सवेरा जो उठा है
रात बनकर आजमा ले मुझे तू
चांदनी सा मैं खड़ा, अडिग अपने पथ पर पड़ा
कर रहा वार प्रहार, घने बादल के साजिश तले तू।।
छोड़ षड़यंत्रों का खेला,
खड़ा मैं रण में तेरे लिए अकेला
उठा विष, चला बाण, कर प्रहार जोर का तू
फिर भी जिस्मों के झुंड में , मुझे खड़ा अकेला पाएगा तू।
उस वक्त माफी की गुंजाईश ना होगी
क्रोध की अग्नि में अगर मैं जला ,तो तेरे सर धड़ ना होगी।
ना कोई गीतासार सुनाएगा, ना कोई विनाश का व्यवहार समझाएगा
क्योंकि बना कृष्ण मैं, तुम्हें सिर्फ सर्वनाश का मंजर दिखाएगा।।
रोक ले लफ़्ज को लाल होने से तू
रोक ले विष बाण का प्रहार तू
तो फिर ना समंदर खाक होगा
तो फिर ना रूह किसी का राख होगा।।
कातिब 
रजनीश बाबा मेहता