Monday, July 31, 2017

।।वो अपना था, या था पराया।।

Poet,Writer, Director Rajnish BaBa Mehta 

मेरे शब्द आज ना जाने क्यों कांपती हुई निकली 
देखो जरा कहीं गलियों में वो नंगे पांव तो नहीं निकली
सवेरों की धूप से मचलती गलियों की आंख लगती रही 
खामोश क्यों है गलियां , देखना जरा झरोखों की दरारों से 
बंद ज़ुबान कर कहीं, पाज़ेब को हाथों में लेकर तो नहीं निकली ।।

भीगी लटों की तरसती बूंदे, रास्तों पर गिरकर क्यूं बिखर रही है 
शोख अदाओं सी चेहरे पर , ये काजल ना जाने क्यूं संवर रही है 
बिखरी लटों की लहरें, गुलाबी होठों पर क्यूं धीमी-धीमी मुस्कुरा रही है 
देखना जरा दरवाजों पर ,कहीं सारंगी वाले फकीरों के मेले तो नहीं निकली 
बरसाती रातों का फिक्र छोड़, देखना जरा कहीं बिना सिंदूरी माथा लिए तो नहीं निकली।।

बेपरवाह जिस्म--जोश लिए, सर्द रातों को गर्माहट में बदलने की आदत उसकी 
छोड़कर आना उसे मुहाने के मस्तक पर, क्योंकि लौटने की आदत है उसकी 
शहर भर के भौरे को खबर कर देना, क्योंकि गुनगुनाने की आदत है उसकी 
सांकल बंद कमरों में दफन करना, क्योंकि उड़ने की आदत जो है उसकी 
फिर भी ज़िदा रहेगी ज़ेहन में, क्योंकि संगीत सी सोने की आदत है उसकी

अब फिक्र का ज़िक्र छोड़, निकला हूं नंगी गलियों में सफेद लिबास लिए 
रोती आंखों की बूंदों में शब्दों को दफन कर, खड़ा हूं चेहरों पर मातम लिए 
मरघट में सन्नाटों की चीख तले, देख रहा हूं उस रूह को, जो नंगे पांव निकली
वो अब अपना था, या था पराया, यही सोचकर पूरी ज़िदगी की आखिरी शाम निकली।। 

कातिब  
रजनीश बाबा मेहता  



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