Tuesday, March 27, 2018

।। किस्सा थोड़ी बदनाम सी है ।।

Writer Director Rajnish BaBa Mehta 

बंदिशों की धागों पर शहर की शाम सी है
किस्सा गुलाबी होठों की थोड़ी बदनाम सी है ।।
लो सुनाता हूं नज़्म--नाश वो थोड़ी आम सी है 
वो महरू़म शक्ल क्या देखी ग़िर्द आईनों में
पूरा जिस्म लिए अकेली, वो थोड़ी बदनाम सी है।।

रिश्तों की गिरहों को रास्तों पर खुलते देखा था उस रोज 
पहलुओं में पत्थरों को हर बार फिसलते देखा था उस रोज 
अफसोस के इरादो में, ज़िद जश्न की तरह जाने क्यूं मनाती रही 
ग़म आंखों से नहीं, आंसू सांसों से पीती रही हर रोज ।।

वक्त है नुमाईश की, लेकिन खुद की आजमाईश होगी एक रोज 
नफ़्स है हथेली पर लेकिन जिस्म से बदनाम क्यों होती रोज रोज 
देखना खुले पैमाने पर , पयाम तले बंद आंखे लिए डूबेगी एक रोज 
फिर ना रात रोएगी, ना हुस्न का जश्न होगा, लेकिन मौत होगी किसी रोज।। 

बंद अंधियारे छोटी दीवारों में अबस, आखिरी नसीब भी नासबूर सी है 
निस्बत की खोज में रोती रूह के तले , भीड़ में वो अकेली जिस्म सी है  
रोती सिसकती बंद गलियों में अकेले , लिबास ओढ़े मगर रूह नंगी सी है
ख़त्म हुई ख़्वाहिश,खुद को खोजती ख़ामोश ख़लिश की तरह खुदा के तले 
अब क्या, ठहरता वक्त भी हुआ पराया ,अपनो का बचा ना कोई साया, 
फिर भी ना जाने क्यों, आज भी वो, थोड़ी- थोड़ी बदनाम सी है  

कातिब
रजनीश बाबा मेहता 


।।नज़्म--नाशबर्बादी की सुरीली दास्तान।।गिर्द= गोल।।नफ़्स= आत्मा।।नासबूर= अधीर ।।निस्बत= सम्बन्ध।।